फोटो:- न्यूरोसर्जन डॉ मनीष कुमार।


 कमलेश पांडेय/वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार 


बिहार के लोकमहापर्व छठ पूजा की वैज्ञानिकता और इसकी रोग निवारण क्षमता या कार्यसाधकता के बारे में किसी से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। जनश्रुतियों से भरा पड़ा इतिहास भी इसके बाह्य और आंतरिक मनोकामना साधकता की तस्दीक करता है। खास बात यह कि समाज का वैज्ञानिक और चिकित्सक समुदाय भी इसमें विशेष दिलचस्पी रखता आया है। विधि-सम्मत पूजन से लेकर व्यवहारिक आचरण तक में छठ पूजा का कोई दूसरा सानी नहीं। इसके चार दिवसीय अनुष्ठान में साफ सफाई से लेकर अन्न-जल, फल-फूल के साथ साथ समाज के सभी वर्गों को अहमियत व अधिकार दिया गया है। सूर्य राजतुल्य ग्रह है, पितृ प्रधान ग्रह है। इसलिए इसकी उपासना में  राजकाज से लेकर ग्राम-समाज तक को जो महत्ता प्रदान की गई है, वह अपने आपमें व्यापक पहलुओं को समेटे हुए है। 

यह बात मैं इसलिये छेड़ रहा हूँ, क्योंकि मगध से दूरस्थ प्रदेश इंद्रप्रस्थ यानी आधुनिक दिल्ली-एनसीआर में भी इसका अनुकरण और बढ़ता प्रचलन आपके लिए जानना जरूरी है, ताकि आप भी इसे मानकर निज कल्याण करें कार्तिक अथवा चैत्र षष्ठी पूजा के दौरान। जब पिछले दिनों आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के एक प्रमुख चिकित्सक और सुप्रसिद्ध न्यूरोसर्जन डॉ मनीष कुमार ने द्वारिका, दिल्ली स्थित अपने कार्यालय में यह कहा कि मैं भी छठ ब्रत करता हूँ, तो मेरी उत्सुकता इसकी वैज्ञानिकता व उसके पीछे छिपी ऐतिहासिकता में और बढ़ गई। क्योंकि वह कौन सी बात है जिसने इसे तमाम सामाजिक व धार्मिक विडंबनाओं के बावजूद सहेजे व समेटे हुए है, यह जानना सबके लिए जरूरी है। उन ब्रह्मर्षियों के लिए भी जिनके पुरखों ने राजसत्ता को लोकसत्ता से जोड़े रखने के लिए भी इस धार्मिक अनुष्ठान का प्रारंभ किया होगा। 

वाकई, देशी-विदेशी आक्रांताओं ने हमलोगों पर अनियतकालीन शासन करने के नजरिए से सुनियोजित रूप से हमारी सभ्यता-संस्कृति पर जो कतिपय कुठाराघात किए, वह किसी न किसी रूप में आज भी जारी है। हमारे योद्धाओं की हत्या, उसके उपरांत विद्वतजनों का उत्पीड़न, समाज को दिशा देने वाले संस्थानों और उनमें संग्रहित सद्ग्रन्थों का दहन व हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पद दलन उनमें प्रमुख हैं। लिहाजा इतिहास के नजरिए से या फिर उसकी विभिन्न कसौटी पर हमारी जिन लोकख्यात सभ्यता-संस्कृति के बहुआयामी पहलुओं की चर्चा तक नहीं है, वह हमारी जीवनशैली में आजतक इस कदर समादृत है कि उसके बारे में बहुत कुछ कहने से ज्यादा कुछ अलग हटकर चिंतन मनन को उत्प्रेरित करते हैं। 

लोक आस्था का महापर्व छठ पूजा की उदात्त लोकपरम्परा भी उन्हीं में से एक है। जो पहले प्रिंट, श्रव्य व दृश्य मीडिया माध्यमों पर सवार होकर चर्चित हुआ, और अब सोशल मीडिया माध्यमों के सहारे सात-समंदर पार तक अपनी प्रासंगिकता, व्यवहारिकता व जनोपयोगिता स्वयंसिद्ध कर रही है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि साफ-सफाई के मद्देनजर जहां इसकी लोकप्रियता व जनस्वीकार्यता बढ़ी है, वहीं, जनस्वास्थ्य, जनसंकल्प और जनभावना के नजरिए से भी इसकी महत्ता सर्वव्यापी है। यह पूजा परम्परा नहीं चाहते हुए भी बहुत कुछ कह रही है, समझने वालों के लिए। 

न्यूरोसर्जन डॉ मनीष कुमार आगे बताते हैं कि वैदिक, अवैदिक धर्मों के जले और फटे इतिहास में भारतीय समाज के संस्कार और संस्कृति की खोज जरूरी है। खासकर छठ महापर्व की उदात्त परम्परा, श्रवणों के इतिहास की राख में प्रमाण के लिए भटकती संस्कृति, समाज और संस्कार के बारे में भी जानना-समझना जरूरी है। इसके लिए किसी ऐतिहासिक प्रमाण से ज्यादा उसके व्यवहारिक लोकपरंपरा और प्रकृति बोध पर शोध-अनुसंधान की दरकार है, ताकि बिखरते समाज व परम्पराओं को फिर से सहेजा, सजाया, संवारा जा सके। इसके प्रत्यक्ष व परोक्ष लाभों से देश-दुनिया को अवगत कराया जा सके।

निःसन्देह, छठ महापर्व प्राचीन मगध-वैशाली के आसपास के समाज के लिए एक ख़ास महत्त्व रखता है। अक्सर ही यह पूछा जाता है कि यह किस बात का पर्व है? कल ही मेरी बेटी यह पूछ रही थी कि ये छठी मईया हैं कौन? इस बात में दो मत नहीं कि छठ सूर्य पूजा का पर्व है, पर इसके विधि विधान से स्पष्ट है कि यह सूर्य पूजा मात्र नहीं है, बल्कि इससे भी आगे इसमें कुछ और सार समाहित है। क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा की पूजा से आगे यह अन्न रूपी ब्रह्म की भी पूजा है, जिसमें सभी प्रकार के लोकल फल-फूल यहां तक कि गन्ना और गौ-दूध को भी शामिल किया गया है। आशय यह कि पंच तत्वों से निर्मित इस शरीर के संचालक सूर्य की पूजा यदि नीर-क्षीर, फल-फूल और मीठे अन्न से की जाए तो सूर्य की अधिष्ठात्री षष्ठी शक्ति भी प्रसन्न होंगी। और काल प्रवाह वश ऐसा ही हुआ भी।लेकिन जब वेदों या पुराणों में इसके पूजन व विधि विधान की चर्चा तक नहीं है, तो फिर यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर ऐसा क्यों? और फिर कहाँ से आया यह छठ पूजन परम्परा?

डॉ मनीष कुमार आगे बताते हैं कि हमारे इतिहास की सबसे बड़ी बुराई या कमी, 1192 में और फिर उसके बाद से हमारे इतिहास का गायब होना है। इसलिए हमें उस जले हुए नालंदा में ही इसका जवाब ढूँढना होगा। नालंदा, मगध व भूमिहार ब्राह्मण परस्पर पूरक समझे गए हैं। इसलिए पता नहीं कि सत्ता दलन की प्रवृत्ति तले क्या क्या जला? नालंदा में भी और उसके बाद में भी, उसके बाहर भी, क्योंकि सिर्फ जले हीं नहीं बल्कि मरे, भागे व गायब हो गए  इंसान और उनके साथ कई एक प्रमाण तक। जिसके सम्बन्ध में इतिहास का गूंगापन समझ में आता है और उससे परे भी है।

खासकर मगध और वैशाली के इलाके का भू-भाग वैदिक समय से अवैदिक धर्मों का यानी वेद विरोधी धर्मों का, जिन्हें श्रवण कहते थे, क्योंकि उनकी बातों को सुनना बहुत मज़ेदार होता था, केंद्र था। जैन धर्म जो अवैदिक यानी वेद विरोधी धर्मों में सबसे पुराना है, मूलतः अयोध्या और श्रावस्ती से ही प्रारम्भ हुआ। प्रारम्भ के छः जैन तीर्थंकर अयोध्या-श्रावस्ती यानी भगवान महात्मा गौतम बुद्ध का जन्म स्थान वाराणसी से ही थे। स्वयं भगवान राजा रामचन्द्र के पिता राजा दशरथ के दादा जी श्रवण थे। उनकी छाया से निकलने के लिए, अपने को वैदिक धर्म का रक्षक साबित करने के लिए राजा दशरथ को श्रवण कुमार की हत्या करनी पड़ी। और यह सब इसलिए ताकि पुत्र प्राप्ति यज्ञ वैदिक ब्राह्मणों द्वारा संपन्न कराया जा सके। इसीलिए उन्हें पुत्र शोक का श्राप मिला।

दरअसल, मनुस्मृति में भी गंगा-यमुना-सरस्वती का मिलन प्रयाग यानी इलाहाबाद के स्थल तक हीं आर्यावर्त्त कहा गया है। जबकि गंगा से उत्तर और सरयू से पूरब का भाग हिमालय तक, बिम्बसार और अजातशत्रु द्वारा रौंदे जाने तक, स्वाशासित प्रदेश थे जहाँ प्रजातंत्र का जन्म हुआ था। खुद माता सीता के प्रदेश के राजा मिथिला नरेश, जिनके पद का नाम जनक था, सिर्फ एक विद्वान् थे, आततायी नहीं...जहाँ वैदिक धर्म, जो मन्त्रों, आहुति और बलि की व्यवस्था पर आधारित है और जैन धर्म जो उपवास और व्यवहार की पवित्रता को प्राथामिकता देता है, उतने ही आस्था के साथ जितने आस्था के साथ विधिपूर्वक मंत्रोच्चार करने से और बलि प्रदान करने से मनोकामना पूर्ण होने की बात कही जाती है। लेकिन दोनों हीं अपने विधि विधान में बहुत स्ट्रिक्ट थे। उपवास के द्वारा भगवान की प्राप्ति-मृत्यु को प्राप्ति का विधान आज भी जैन धर्म में प्रचलित है।

आज से कोई 2500 सालों पहले श्रावस्ती का एक महामानव अपने आसपास की हिंसक बलि और आहुति से ऊबकर जीवन में सत्य और शान्ति की तलाश में भटका हुआ गंडक नदी के किनारे चलते हुए गंगा तट पर आया और गंगा पार कर राजगृह यानी तत्कालीन मगध की राजधानी होते हुए गया में उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। यही भगवान बुद्ध के नाम से प्रतिष्ठित हुए। वे न तो मंत्रोच्चारों के बीच दिए गए आहुति से खुश थे, न अति कठोर व्यावाहारिक अनुशासन से, बल्कि वे ऐसा मार्ग चाहते थे जो हम कर सकें और हमें भगवान की प्राप्ति हो सके।

कहा जाता है कि तत्कालीन अंग देश का राज कुमार, जिसने जीवन पर्यंत कभी धरती पर पाँव नहें रखे थे, कभी अपने पाँव में जूते नहीं पहने थे, उन्होंने जब बौद्ध धर्म स्वीकार कर महात्मन से मिलने पहुंचे, जो उस समय पाटलिपुत्र में प्रवास कर रहे थे और अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति के लिए पालकी से नंगे पाँव महात्मन की ओर बढ़े तो उनके पाँव के कोमल होने क्योंकि कभी धरती पर उसे नहीं रखा था और उसमें जूते नहीं पहनने के कारण उनके पाँव से खून निकलने लगा। यह देख कर महात्मन खुद चल कर उनकी ओर आये और कहा कि भंते, वीणा की तार को इतना न खींचो की वह टूट जाए और इतना ढीला भी न छोड़ो की आवाज़ हीं न निकले। लेकिन यह बाद की बात थी. . .!

उसके पहले राजगृह के आस-पास के जंगलों में वे उपवास और अन्य कठोर व्रतों के साथ तपस्या किये। भूख और कमजोरी के कारण वे नदी में गिर गए और उन्हें सुजाता नामकी लड़की ने उठाया, जिसके पश्चात वे फिर से अन्न जल ग्रहण करने लगे और स्वस्थ हुए। उन्होंने मध्यम मार्ग में अहिंसक आहुति बिना जीव हत्या के बलि और सीमित लेकिन नियमित व्रत-उपवास का विधान प्रारम्भ किया। यह ज्यादा व्यावाहारिक होने के कारण आम जन के लिए ज्यादा आसानी से ग्राह्य और उनका मत ज्यादा प्रसिद्धि पाने लगा। संभवतया छठ पर्व उन्हीं विधानों में से एक है,  पर जले और फाटे इतिहास से इसे निकालेगा कौन! जबकि विद्वतजन भी हैं मौन! लोकश्रुत इतिहास को स्पष्ट करने, उसकी कड़ियों को जोड़ने में इनकी दिलचस्पी न होना भी लीक से हटकर कुछ करने को अभिप्रेरित करता है।

मसलन, इन कड़ियों को जोड़ते हुए यह स्पष्ट करना होगा कि भूमिहार ब्राह्मणों का बहुत बड़ा हिस्सा महायान बौद्ध धर्मावलम्बियों का है, जिसमें कुछ सन्यासी विद्रोह के समय के विस्थापित ब्राह्मण भी थे। इसीलिए छठ से हमारा गहरा नाता है और बिहार का भी। अब तो देश-दुनिया तक इसका विस्तार हो चुका है। डॉ मनीष कुमार के मुताबिक, छठ पूजन वैदिक धर्म के पञ्च तत्व यानी आसमान, क्षितिज, जल, अग्नि और वायु मात्र के सामने छठे तत्व 'अन्न' की पूजा के साथ सूर्य की महासत्ता का भी पूजन है। यह उपवास और परिमार्जित व्यवहार के साथ मानवीय गुणों पर आधारित प्रकृति और ब्रह्म का सर्वोतकृष्ट पूजन विधि है। जिस तरह से इसे लोकपर्व, महापर्व और बड़का पर्व का दर्जा समाज ने दिया है और बिना ऊंच-नीच, छुआछूत का विचार करते हुए अपनी सामूहिक भागीदारी जताई है, उससे भारतीय समाज को एक नई मजबूती मिली है। निःसन्देह, सत्ता भी इससे किसी न किसी रूप में लाभान्वित हुआ ही है। 
                      सिटी न्यूज़ हिंदी
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