रिपोर्ट :- गजेन्द्र रावत


नई दिल्ली :-
      देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन (5 सितंबर) को हर वर्ष भारत में शिक्षक दिवस (shikshak diwas)के रूप में मनाया जाता है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद और महान दार्शनिक थे। इस साल कोरोना वायरस के कारण स्कूल और कॉलेज बीते कई महीनों से बंद है। ऐसे में शिक्षक दिवस को छात्र अॉनलाइन ही मना सकते है। 

इस दिन स्टूडेंट्स अपने-अपने तरीके से शिक्षकों के प्रति प्यार और सम्मान प्रकट करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय टीचर्स डे (international teachers day )का आयोजन 5 अक्टूबर को होता है। इसके अलावा कई देशों में अलग-अलग दिन भी शिक्षक दिवस मनाया जाता है। हर एक इंसान जिंदगी में मुश्किलों से जूझते हुए किसी न किसी दिन सफलता हासिल करता है। एक ऐसी ही कहानी की बात करने जा रहे है डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की।

पिता थे स्कूल जाने के खिलाफ
डॉक्टर राधाकृष्णन के पिता उनके अंग्रेजी पढ़ने या स्कूल जाने के खिलाफ थे। वह अपने बेटे को पुजारी बनाना चाहते थे। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन बेहद ही मेधावी छात्र थे और उन्होंने अपनी अधिकतर पढ़ाई छात्रवृत्ति के आधार पर ही पूरी की। 

केले के पत्‍ते पर करते थे भोजन
डॉ. राधाकृष्णन ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लूनर्थ मिशनरी स्कूल, तिरुपति और वेल्लूर में पूरी की थी। इसके बाद उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ाई की थी. उनके परिवार के आर्थिक हालात इतने बदतर थे कि केले के पत्‍तों पर उनका परिवार भोजन करता था। 

सूत्रों के मुताबिक एक बार की घटना है कि जब राधाकृष्‍णन के पास केले के पत्‍ते खरीदने के पैसे नहीं थे, तब उन्‍होंने जमीन को साफ किया और जमीन पर ही भोजन कर लिया। 

ऑक्‍सफोर्ड में बनें प्राध्‍यापक
डॉ. कृष्‍णनन ने दर्शन शास्त्र से एमए किया और 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में सहायक अध्यापक के तौर पर उनकी नियुक्ति हुई। उन्होंने 40 वर्षों तक शिक्षक के रूप में काम किया। 

भारत रत्न से किया सम्मानित
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को 27 बार नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। 1954 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का मानना था कि देश में सर्वश्रेष्ठ दिमाग वाले लोगों को ही शिक्षक बनना चाहिए। 

जानिए डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की सफलता का राज 
डॉ. राधाकृष्णन करियर के अपने दौर में 17 रुपये कमाते थे। इसी सैलरी से वे अपने परिवार का पालन पोषण करते थे। उनके परिवार में पांच बेटियां और एक बेटा थे। परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्‍होंने पैसे उधार पर लिए, लेकिन समय पर ब्‍याज के साथ उन पैसों को वह लौटा नहीं सके, जिसके कारण उन्‍हें अपने मेडल भी बेचने पड़े थे, इन परिस्‍थतियों में भी वे अध्यापन में डटे रहे। 
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