◼️ सामाजिक न्याय को साधते साधते जातिवाद की बलिवेदी पर बलि चढ़ गया समाजवाद

◼️ समाजवाद का पिछलग्गू राष्ट्रवाद आज बन चुका है समाजवाद का नियंता और पूंजीवाद का पोषक

◼️ पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद यादव के मीडिया प्रभारी राम बहोर साहू की जुबानी सुनिए जार्ज फर्नांडीस की सामाजिक न्याय वाली सोच

कमलेश पांडेय/वरिष्ठ पत्रकार


गाजियाबाद :- सुप्रसिद्ध समाजवादी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. जॉर्ज फर्नांडीस आज यदि होते तो 91 वर्ष पूरे करके 92 वर्ष में प्रवेश कर रहे होते। बेशक आज वो नहीं हैं, लेकिन राष्ट्र के समाजवादी सपनों को आकार देने के लिए उनके विचार और व्यापक जनसरोकार आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। कोरोना काल में उनकी कमी सबको खल रही होगी, क्योंकि वह न केवल चुनाव में बल्कि उसके पहले भी और उसके बाद भी सड़कों पर आजीवन संघर्ष करते रहे। 

इस बात में कोई दो राय नहीं कि देश के समाजवाद को उन्होंने एक नई दिशा तो दी ही, समकालीन राष्ट्रवाद को पल्लवित-पुष्पित होने में भी अपना अभिन्न योगदान दिया, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के राष्ट्रीय संयोजक के तौर पर।जार्ज फर्नांडीस के मन में अक्सर यह सवाल उठता रहता था कि यह किसका देश है? आशय यह कि जिनका यह देश है, उसके लिए शासक वर्ग क्या कर रहा है? समाजवाद और राष्ट्रवाद की सुस्वादु सियासी खिचड़ी पकने और देश से कांग्रेस की पैर उखड़ने के पीछे भी उनकी व्यापक रणनीति थी, जो उनकी उदात्त सोच से सनी-गूँथी थी। बेशक उनके मित्रों, उनके अनुयायियों ने उन्हें भूला दिया या फिर उनकी 91वीं जयंती पर सिर्फ सियासी औपचारिकताएं पूरी कीं। लेकिन आज हम आपको समाजवादी कार्यकर्ता राम बहोर की जुबानी, बता रहे हैं कि जार्ज साहब क्या थे, कैसे थे, किनके थे और अब कौन उनके हो सकते हैं वैचारिक रूप से। पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद यादव के मीडिया प्रभारी राम बहोर साहू समाजवादी सियासत के उत्थान-पतन के वह साक्षी हैं, जिनके निज अनुभवों से सबक लेकर आज भी बिखरे समाजवादी मनके को एक सूत्र में पिरोकर जनकल्याणकारी सियासी माला गूंथा जा सकता है। क्योंकि यह अजीब बिडम्बना है कि कभी समाजवाद का पिछलग्गू रहा राष्ट्रवाद आज उसका अगुवा बन चुका है और उसकी भूलों से सबक लेकर अपराजेय प्रतीत हो रहा है, जिससे समाजवादी डीएनए की बेचैनी को समझा जा सकता है।

खैर, राम बहोर साहू जार्ज साहब के बारे में पूछने पर बताते हैं कि जॉर्ज साहब कहते थे कि अब संघर्ष होगा, चुनाव में भी संघर्ष होगा और चुनाव के बाद भी संघर्ष होगा। उनका कहना अनायास भी नहीं था। मुंबई उनके संघर्ष से वाकिफ थी। शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे उनके प्रारंभिक सियासी मित्र थे। दोनों की जुगलबंदी ऐसी थी कि एक आह्वान पर मुंबई ठप्प। 

एनडीए शासनकाल (1998-2004) से जुड़े अपने संस्मरण को टटोलते हुए श्री साहू बताते हैं- शाम के छः बज रहे थे, हमारा ऑफिस बंद हो गया था।  मैं अपनी साइकिल से घर जाने के लिए निकला, लेकिन कृषि भवन-रेल भवन की ओर चल पड़ा। कृषि भवन के पास देखता हूँ कि समाजवादी वरिष्ठ नेता और पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस साहब पैदल दो-तीन साथियों के साथ चले जा रहे हैं। मैं साइकिल से उतरा और अभिवादन किया। जॉर्ज साहब ने मुड़कर मेरी तरफ देखा और मुस्कुराये। उन्होंने पूछा "ऑफिस बंद हो गया, राम बहोर, इधर कहाँ?" मैंने उनको बताया" हाँ, बंद हो गया बस यहीं तुगलक रोड की तरफ।" 

दरअसल, उन दिनों ताबूत घोटालें की चर्चा जोरों पर थी।  मुझे अच्छा नहीं लगता था जब टीवी में बैठे नए युवा एंकर लोग जॉर्ज साहब का इंटरव्यू लेते हुए उनको अपनी बात पूरी तरह से रखने नहीं देते थे। खैर, समाजवादी नेता और पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज साहब ने चलते-चलते थोड़ी मुझसे बहुत चर्चा की। फिर मैंने उनसे आग्रह करते हुए कहा कि साहब, आप इन टीवी चैनलों को इंटरव्यू न दें क्योंकि ये आपको बोलने नहीं देते। आप अपना साक्षात्कार किसी वरिष्ठ पत्रकार को दें तो बेहतर रहेगा। "हां, तुम ठीक कह रहें हो?" जॉर्ज साहब बोले।   

वे बताते हैं, समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस ने लगभग अठारह साल की उम्र से ही मुंबई के चौपाटी में रहते हुए अपना राजनीतिक संघर्ष शुरू किया और उसके बाद भी आज़ीवन संघर्ष करते रहे। उनका मानना था कि राष्ट्रीय मोर्चा-जनता दल की सरकार मंदिर-मस्जिद के सवाल पर नहीं गई। 

वे कहते थे कि सदियों से चली आ रही सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए सामाजिक न्याय जरूरी है और हमें जो करना चाहिए था, वह हमने किया। इस विषय पर हमने 1989 में चुनाव लड़ा और जनता दल ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में यह स्पष्ट रूप से लिखा था, तभी लोगों ने अपना वोट दिया। उसके तहत ही राष्ट्रीय मोर्चा-जनता दल की सरकार बनी। फिर सात नवंबर, 1990 को सामाजिक न्याय के तहत राष्ट्रीय मोर्चा-जनता दल सरकार ने 27 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की। तब लालकृष्ण आडवाणी ने फोन किया और कहा कि अब हमारे पास “मंदिर-मस्जिद के सिवा कुछ भी नहीं बचा” है। 

उन्होंने बताया, आजादी के बाद सन 1957 में काका कालेलकर आयोग का गठन हुआ, जबकि सामाजिक विषमता के चलते हजारों साल से उत्पीड़ित लोगों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए बनाया गया आयोग धूल फांक रहा था। सन 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तब मोरारजी भाई देसाई प्रधानमंत्री थे।  उस समय सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए सामाजिक न्याय दिए जाने की चर्चा हुई। मोरारजी देसाई ने कहा कि आयोग बहुत पुराना हो गया है, इसलिए अब नया आयोग बनाया जाएगा। आयोग बना और उस आयोग के अध्यक्ष भूपेंद्र नारायण मंडल (बी पी मण्डल) को बनाया गया। उस समय जनता पार्टी की सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और कई सहयोगी सरकार में शामिल थे। तब किसी ने कोई विरोध नहीं किया था। लेकिन बाद में वह हुआ, जिसकी कोई परिकल्पना भी नहीं कर सकता था।

इतिहास ने 1989 में एक बार फिर मौका दिया। जनता दल के सहयोगी भी लगभग वही थे, जो 1977 में सहयोगी बने थे। इस बार भी राष्ट्रीय मोर्चा-जनता दल सरकार सदियों से चली आ रही सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए कटिबद थी। लेकिन बीजेपी ने अब सामाजिक न्याय का नहीं,बल्कि जगह अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का विरोध किया और हिन्दू राष्ट्रवाद, मंदिर-मस्जिद के ताने बाने बुनने लगी। जिससे मंडल आयोग की सिफारिश लागू करके अपराजेय बनने का स्वप्न देखने वाली बीपी सिंह की सरकार अपने ही लोगों के चलते धराशायी हो गई। जिससे सामाजिक न्याय को आवाज तो मिली, लेकिन उसके सुर, लय व ताल बदल गए। जार्ज की समग्र सोच से बिल्कुल अलग। जातीयता की मृगमरीचिका में किसी भटकाव की ओर।

साहू बताते हैं, सदियों से चली आ रही सामाजिक न्याय की लड़ाई आज से नहीं, बल्कि यह गौतम बुद्ध के समय से जिन्होंने उच्च कुल के परिवार में  जन्म लेने के वावजूद भी सामाजिक विषमता को समझा और इस असमानता को दूर करने के लिए गौतम बुद्ध ने भाषा नीति, जाति नीति और सामाजिक असमानता की लड़ाई भी छेड़ी। जॉर्ज साहब आगे भी यह सामाजिक असमानता को मिटाना चाहते थे। साथ ही उनका ये भी मानना था कि जाति का नाम लेने में हमें शर्म नहीं आनी चाहिए बल्कि इस प्रथा को तोड़ा जाना चाहिए। सामाजिक न्याय का एक और पहलू भी है, जिसमें सवर्ण जातियों में भी आर्थिक विषमताएं हैं, उनको भी देखना होगा, और इस विषमता को हटाने की कोशिश करनी होगी। 

इस प्रकार सबके भले की बात सोचने वाले समाजवादी नेता जॉर्ज साहब जीवन भर समाजवादी ही रहे। सांसद रहे या मंत्री रहे, पर उनके दरवाजे हमेशा खुले रहते थे। किसी महान व्यक्ति ने कहा "द्वार खुला है चले आइये" पर जॉर्ज साहब के यहां मुख्य द्वार पर दरवाजा तक नहीं रहता था।  सादगी लिवास में हमेशा रहते और वे अपने कपड़े भी खुद ही धोते थे। उन्होंने अपना जीवन हमेशा "सादा जीवन उच्च विचार" की तर्ज पर संजोये रखा।

अपने जीवन के अंतिम चरण में, अल्झाइमर'स  नामक बीमारी से लम्बे समय तक ग्रस्त रहे। आखिरकार 29 जनवरी, 2019 को जॉर्ज साहब ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। "हंस चला आकाश, कोई न उनके साथ।" 

इतने में, उनकी गाड़ी आ जाती है और जार्ज साहब बैठकर चले जाते हैं। आज उनकी 91वीं जयंती है। उनको सादर नमन है। 
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