रिपोर्ट :- अजय रावत

गाजियाबाद :- विश्व ब्रह्मऋषि ब्राह्मण महासभा के संस्थापक अध्यक्ष ब्रह्मऋषि विभूति बीके शर्मा हनुमान ने बताया कि श्रद्धा एक पवित्र मनोभाव है, जो समाज के पूजनीय एवं आदरणीय जनों के प्रति अंतर्मन में उत्पन्न होकर आत्म कल्याण की प्राप्ति कराता है। सामान्यतः संतों, महापुरुषों और आप्तवचनों के प्रति दृढविश्वास को श्रद्धा कहते हैं। वेदांत में गुरुओं द्वारा उपदिष्ट वचनों के प्रति विश्वास को श्रद्धा कहा गया है, जो मनुष्य का सर्वविध कल्याण करने वाली षट् संपत्तियों में एक है। गुरुओं के प्रति श्रद्धा आयु, विद्या, यश और बल प्रदान करती है। धर्म, अध्यात्म एवं लौकिक जीवन का कोई भी ऐसा मार्ग नहीं, जो श्रद्धा के बिना पूर्ण होता हो। 

इसीलिए दुनिया के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद के श्रद्धा सूक्त में श्रद्धा के महत्व का विविध रूपों में गान किया गया है। किंतु किसी भी कर्म में अनुरक्ति को श्रद्धा नहीं कहते। यह ऐसा परम पवित्र भाव है, जिसके आने पर कर्म उपासना बन जाता है और करने वाला उपासक।ईश्वर में दृढ़विश्वास भगवद्भक्ति का प्रथम सोपान है, जिसके होने पर ही भक्ति के अग्रिम सोपानों पर चढ़ना संभव है। किंतु जैसे विश्वास की प्रसविनी श्रद्धा है। वैसे ही विश्वास भी श्रद्धा को जन्म देता है। इनके इस प्रगाढ़ संबंध के कारण ही गोस्वामी जी ने मानस के मंगलाचरण में श्रद्धा एवं विश्वास को पार्वती और शिव का स्वरूप कहा है, जिसके बिना सिद्ध पुरुष भी अंतः स्थित परमात्मा को नहीं देख पाते। 

गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण रखने वाले श्रद्धावान को ही गीता में ज्ञानप्राप्ति का अधिकारी कहा गया है।ज्ञान, भक्ति और कर्म केवल अध्यात्म के विषय नहीं हैं, ये लोक जीवन के आधार भी हैं। न ज्ञान के बिना भक्ति और कर्म संभव हैं, न भक्ति के बिना ज्ञान और कर्म। इसी प्रकार कर्म के बिना ज्ञान और भक्ति भी संभव नहीं हैं। किंतु श्रद्धा के बिना तो ये तीनों असंभव हैं। अतः श्रद्धा जीवन का ऐसा संस्कार है, जिसके आने पर बड़ी से बड़ी संकल्प सिद्धि भी आसान हो जाती है।
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