पत्रकार सुशील कुमार शर्मा की कलम से......✍🏻

गाजियाबाद :- कोविड के चलते लगभग दो वर्ष से गाजियाबाद के ही राकेश मार्ग निवासी ओज के राष्ट्रीय कवि कृष्ण मित्र  जी से मिलना नहीं हुआ था। गाजियाबाद के नवरत्नों में शुमार आदरणीय कृष्ण मित्र जी 91 वर्ष के हो चुके हैं । कई दिनों से मित्र कुलदीप जी  (जो संभवतः अपनी पीढ़ी के अकेले छायाकार हैं) अनुरोध कर रहे थे कि कृष्ण मित्र जी से मिलने का मन है। पिछली बार भी हम दोनों साथ ही  थे जब उनसे उनके घर पर लम्बी बैठक हुई थी। गत दिवस जब हम उनसे मिलने पहुंचे तो अस्वस्थता के बावजूद  वह हमें देखकर बिस्तर से  उठने लगे तो उनकी सेवा में लगे  सहायकों ने उन्हें संभाला। उन्होंने उनसे हम दोनों के पास ही कुर्सी डलवाकर समीप ही बैठाने को कहा। लगभग ढाई घंटे हम उनके पास रहे। उन्होंने अपने कान में मशीन लगवा ली थी, फिर भी ऊंचा बोलने को कहा। वह धाराप्रवाह में पूरे समय विभाजन के बाद पाकिस्तान स्थित गुजरांवाला जिले की तहसील हाफिजाबाद स्थित अपने पैतृक गांव कोटनक्का से परिवार सहित दंगों के बीच गाजियाबाद में आकर बसने की  विस्तार से जानकारी देने लगे। काफी समय कुर्सी पर ही बैठने और इस बीच दवा और उनके नाश्ते का  उनका समय भी निकल जाने पर उनके सहायकों की बेचैनी देख हमने  ही उनसे अनुरोध किया किया कि आप अपनी दवा और नाश्ता ले लें।हम फिर जल्दी आयेंगे तब वह माने।  उल्लेखनीय है मेरी अध्यक्षता में दो दशक से अधिक समय तक हुए पुरातन पत्रकारों की संस्था गाजियाबाद जर्नलिस्ट्स क्लब के कार्यक्रमों में वह सभी के साथ   आधी रात तक रिहर्सल कराने में लगे रहते थे। पत्रकारों द्वारा आयोजित ऐसे भव्य आयोजन उस समय देश की राजधानी में भी नहीं होते थे।
      
मित्र जी ने बताया कि हमारा परिवार संस्कारी ब्राह्मण परिवार था।हमारे पुरखे तो पंडिताई  ही करते थे । पिता पंडित बद्रीनाथ और माता श्रीमती रामप्यारी की वह तीसरी संतान थे।  उन्होंने लायलपुर पाकिस्तान स्थित ब्रह्मचर्याश्रम गुरूकुल में रहकर संस्कृत की शिक्षा ग्रहण की। फिर पंजाब की हिन्दी- रत्न परीक्षा उत्तीर्ण कर संस्कृत की प्राज्ञ परीक्षा में प्रवेश लिया ही था कि देश का विभाजन हो गया  और दंगे भड़क गए। यह वर्ष 1946 का समय था। उस समय वह 13-14 वर्ष के थे। उनके पिता लाहौर में एक फ्लोर मिल में प्रबंधक थे।मिल के मालिक सवायामल संतराम थे। यह फ्लोर मिल उसी जेल के सामने थी जिसमें शहीद भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी। उनके पिता तब भी इसी फ्लोर मिल में प्रबंधक थे तथा वहीं रहते थे। विभाजन के बाद किसी तरह बचते हुए उनका परिवार माता जी व भाइयों सहित पहले  गांव के पास स्थित चिंहौट मिलट्री कैम्प पहुंचा। वहां रेलवे स्टेशन भी था। वहां से वह ट्रेन से निकल सकते थे। लेकिन मिलट्री ने सुरक्षा की दृष्टि से उन्हें  तत्काल लायलपुर जाने को कहा । वहां भी दंगे भड़क रहे थे। उधर लाहौर में फ्लोर मिल पर भी दंगाइयों ने हमला कर दिया था। वहां फ्लोर मिल का मुख्य मिस्त्री मुसलमान था वही परिवार को बचाने वाला ईश्वर का दूत बना। उसी के प्रयास से एक माह बाद वहां से वह निकल सके। पिता धोती पहनते थे उसने उन्हें धोती की जगह पाजामा पहनने को कहा।  उनके हाथ पर ओम गुदा था उसे उसने दस्ताने से ढका। एक ट्रक वाला जो मुस्लिम ही था पिता को एक हिंदू मिलट्री वाले के पास ले गया। उसे वास्तविकता बताई और उन्हें अमृतसर छोड़ने को कहा। लेकिन उसने उनसे मंत्र आदि का ज्ञान लेकर ही विश्वास किया। बार्डर पर तारों के नीचे से उन्हें निकाला। अमृतसर में बुआ चन्द्रकांता और फूफाजी गोवर्धन दास रहते थे । वहां उन्हें शरण मिली। उन्होंने बताया कि हम लोग भी किसी तरह ट्र्क से  अमृतसर पहुंचे। कुछ दिन वहां रहे फिर हमारा परिवार वृंदावन  आ गया। फूफाजी जी की वृंदावन में ससुराल भी थी ।वहां भी उनका संस्कृत का अध्ययन जारी रहा।  वहां गंगेश्वरानंद का आश्रम था। वहां श्रोतमुनी निवास में राधावल्लभ जी से उन्होंने शिक्षा ग्रहण की।उन्होंने हिन्दी- रत्न के बाद प्रभाकर,प्राज्ञ, प्रथमा, मध्यमा, भूषण तथा साहित्य सम्मेलन प्रयाग की परीक्षा साहित्य- रत्न उत्तीर्ण की।  
इस बीच लाहौर  फ्लोर मिल वालों  मध्य प्रदेश के हरदा में आकर दाल मिल लगा ली। वहां अरहर का बहुतायत में उत्पादन होता है । उन्होंने पिताजी को हरदा बुला लिया। दिल्ली में रिश्तेदार थे ,वहां बड़े भाई मन मोहन वैद्य जी को भी नौकरी मिल गई।अन्त में जब गाजियाबाद के स्थायी निवासी बने तो उन्होंने स्थानीय शम्भू दयाल महाविद्यालय से एम ए (हिन्दी) किया। मैंने उनसे कहा कि आपका परिवार प्रापर्टी के व्यवसाय से कैसे जुडा। उन्होंने बताया कि गोवर्धन में एक बिल्डिंग बन रही थी। वहां देखरेख के लिए बडे भाई साहब की 80/- रूपए प्रति माह पर नौकरी लगी थी। वहीं से इसका अनुभव हुआ।जब गाजियाबाद आये तो यही काम किया। यहां उनकी साख भी बन गयी थी। इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट यहां निर्माण कार्य करा रहा था। बड़े बिल्डर्स यहां आ गये थे तब उनके भाई द्वारा  स्थापित मन मोहन वैद्य एंड कम्पनी  उनकी स्थानीय एजेंट बनी और फिर हमने मुड़कर नहीं देखा।
         
उन्होंने बताया यह लगभग 1952 से पहले की बात है तब आरएसएस  और हिन्दू महासभा थी।जनसंघ का गठन नहीं हुआ था।जो बाद में भाजपा बनी। दैनिक वीर अर्जुन के  संपादक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई थे। कृष्ण मित्र जी ने उनके साथ सम्पादकीय विभाग में डेढ़ वर्ष तक काम किया। उनका नाम कृष्ण  लाल मित्र था जिसे अटल जी ने ही कृष्ण मित्र किया। उनके अखबार के सम्पादकीय सरकार के खिलाफ होते थे। मानहानि का मुकदमा चला। पांच हजार का जुर्माना लगा। पैसे नहीं थे इसलिए यह अखबार बंद हो गया। पांचजन्य के सम्पादक विद्यालंकार दिल्ली से अपना अखबार निकालना चाहते थे ।वह आर्य समाजी थे। उन्होंने व आरएसएस के कंवर लाल गुप्ता ने यह अखबार खरीद लिया था। कृष्ण मित्र जी ने उस समय का अटल जी से जुडा एक संस्मरण भी साझा किया। एक बार अटल जी ने उन्हें प्रेस के टांड पर रखे ब्लाकों की लिस्ट बनाने को कहा। वह सीढ़ी पर चढ कर लिस्ट बना रहे थे और अटल जी सीढ़ी पकडे हुए थे। कुछ बड़े ब्लाक नीचे रखे जाने थे। उन्होंने उन्हें अटल जी को पकडाये तो वह जब सीढ़ी छोड़कर ब्लाक रखने लगे जिससे उनका बैलेंस बिगड़ गया और वह गिर गये। उन्हें काफी चोट आई और उनके कंधे में फ्रेक्चर हो गया। अटल जी उन्हें लेकर इरविन अस्पताल (जो अब लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल है) लेकर गये तथा उनके कंधे पर प्लास्टर चढ़वाया। उस समय अटल जी के साथ विजय कुमार मल्होत्रा भी थे। जो बाद में लम्बे समय तक दिल्ली के काउंसलर रहे हैं। अटल जी ने विजय कुमार मल्होत्रा से उनकी मदद को कहा।
     
1958 से पहले की बात है। गाजियाबाद के इंग्राहम इंस्टीट्यूट में टीचर ट्रेनिंग की क्लास चल रही थी। उनके यहां संस्कृत व हिन्दी पढ़ाने वाला कोई नहीं था ‌।उस समय इस स्कूल के प्रिंसिपल डेनियल थे व लेसी मैनेजर थे। वहां से उन्होंने टीचर ट्रेनिंग की। जब विजय कुमार मल्होत्रा दिल्ली के काउंसलर थे और आर के बाउंटरा एजुकेशन आफीसर थे तब उनकी दिल्ली में टीचर की नौकरी लगी थी। गाजियाबाद में पहले उनका परिवार रेलवे रोड मिट्ठू लाल वाली गली में रहा। फिर गांधी नगर के इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट के क्वार्टर में रहा। 1961में उन्हें हार्ट अटैक भी हुआ था। मित्र जी 22 वर्षों तक दिल्ली प्रशासन के विभिन्न विद्यालयों में हिन्दी संस्कृत के शिक्षक रहे।1981 में उन्होंने स्वयं सेवा निवृत्ती ले ली। उसके बाद वह स्वतंत्र लेखन में सक्रिय हो गए। वह 1955 से से हिंदी मंचों में काव्य पाठ कर रहे हैं। ऐतिहासिक लालकिले के कवि सम्मेलन में वह 1962 से जुड़े। जो 16 वर्ष तक जारी रहा। देश के सभी प्रांतों में उन्होंने काव्य पाठ किया है।देश की विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें साहित्य- भूषण सम्मान से सम्मानित किया है । उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर अनेक शोधार्थियों ने शोध किए हैं और कर रहे हैं।  उनकी लगभग 30 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है।कई पुस्तकों के दूसरे और तीसरे संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं।
    
देश के सभी वरिष्ठ कवियों के साथ उन्होंने काव्य पाठ किया है।  जिनमें रामधारी सिंह दिनकर, गोपाल प्रसाद व्यास,काका हाथरसी, ओम प्रकाश आदित्य, गोपाल दास नीरज, रामावतार त्यागी, देवराज दिनेश, हुल्लड़ मुरादाबादी, संतोषानंद, हरिओम पंवार आदि में से अधिकांश उनके निवास पर भी आये हैं। राष्ट्रकवि सोहन लाल द्विवेदी ने उनके बारे में कहा था कि कविवर कृष्ण मित्र की प्रभावी कविताएं सुनने का सुयोग मुझे अनेक अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों के मंच पर प्राप्त हुआ। जनता ने उन्हें बार-बार सराहा और मैं भी स्वयं उनसे रसविभोर हुआ हूं।पद्मभूषण  गोपालदास नीरज ने कहा था कि कृष्ण मित्र राष्ट्रीय चेतना सम्पन्न एक तेजस्वी कवि हैं। कुसुम सुवास के समान उनकी ख्याति प्रदेश की सीमाओं को लांघकर पूरे देश में फैल रही है। उनकी वाणी में सिंह की गर्जना है। उनका शब्द -शब्द एक चिंगारी के समान जन मन को स्पर्श करता है। बाल कवि बैरागी ने उनके बारे में कहा है कि कृष्ण मित्र अपनी पीढ़ी की उर्जा और अस्मिता के अनुगायक हैं। शोषित और स्वेद को उन्होंने सूझबूझ के साथ लिखा है।उनको पढ़ना और सुनना एक सम्मोहन जैसा है।कथ्य और शिल्प की दृष्टि से भी मित्र कहीं -कहीं बिल्कुल अकेले हैं। आचार्य क्षेमचंद्र सुमन ने उनके बारे में कहा है कि राष्ट्रीय जन जागरण और समाज सुधार की दृष्टि से प्रिय कृष्ण मित्र ने अपनी प्रतिभा और मनस्विता का जो सदुप्रयोग किया है वह सबके लिए आदर्श प्रस्तुत करने वाला है। गोपाल प्रसाद व्यास ने उनके बारे में कहा है कि मैंने उन्हें गोष्ठियों में भी सुना है और कवि सम्मेलनों में भी। जहां -तहां छपने के बाद उनकी रचनाएं भी पढ़ी है। मुझे यह कवि सदैव पंक्ति से अलग लगा है।मुझे लगता है वह जो देखता है, सुनता है और अनुभव करता है उसे वह ईमानदारी से व्यक्त करता है।

उल्लेखनीय है वर्ष 2010 से 2012 तक की दो वर्ष की अवधि में उन्होंने  दैनिक घटनाओं पर आधारित "आज का छक्का" शीर्षक से " षट्पदियां" दैनिक पंजाब केसरी के सम्पादकीय के नीचे और स्थानीय दैनिक प्रलयकंर में मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित हुई। जिस पर छह पुस्तकें डाकिये कागज के,दूसरा डाकिया,तीसरा डाकिया,चौथा डाकिया, शब्द साक्षी बने और समय के स्वर सहित छह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है।
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