समीक्षित पुस्तक: गिरमिटिया भारतवंशी ( भोजपुरी नाटक),
नाटककार: डॉ राजेश कुमार 'माँझी'
प्रकाशक: सर्वभाषा प्रकाशन, नई दिल्ली 
प्रकाशन वर्ष:2022
कुल पृष्ठ: अठहत्तर 
समीक्षक : अशोक श्रीवास्तव, निदेशक - पूर्वांचल भोजपुरी महासभा, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत।



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गाजियाबाद :- (अशोक श्रीवास्तव) भौगोलिक सीमाओंमें बंधे भूखण्ड भर का नाम भारत नहीं है, बल्कि आप खोजेंगे तो भारत आपको विश्व के अन्य देशों में भी वृहत रूप में फलता फूलता मिल जायेगा। डॉ. राजेश कुमार "माँझी" द्वारा रचित नाटक  'गिरमिटिया भारतवंशी' मेरी उपरोक्त कही हुई बात का सटीक उदाहरण है, जहाँ पर बतौर रचनाकार डॉ राजेश कुमार "माँझी" यह दर्शाने में पूर्णतः सफल रहे हैं कि कैसे हिंदुस्तान की भौगोलिक सीमाओं के बाहर भी भारतीय मूल के लोगों ने अपने हिस्से का भारत बहुत ही खूबसूरती से बचा रखा है। जहाँ पर माँ गंगा का ज़िक्र भी होता है, तो पत्रा-पंचांग भी देखा जाता है, जहाँ अपनी संस्कृति को बचाये रखने के लिए सियावर रामचंद्र के जयकारे भी हैं तो विवाह के समय गाये जाने वाले गीत भी हैं। पलायन की सच्ची विभीषिका के रेखाचित्र को कल्पना के पृष्ठ पर शब्दों की स्याही से बड़ी ही सुंदरता से उकेरा गया है। 

78 पृष्ठ के इस पुस्तक के समीक्षक एवं पूर्वांचल भोजपुरी महासभा के निदेशक अशोक श्रीवास्तव ने कहा कि साहित्य समाज का दर्पण होता है ! अशोक श्रीवास्तव ने बताया कि
भारत की श्रम शक्ति ने जिस देश की भूमि को अपने परिश्रम के पसीने सींचा है वहाँ से उस देश की सम्पन्नता रूपी फ़सल निश्चित रूप से लहलहाई हैं इसमें कोई संदेह नहीं है लेकिन गिरमिटिया भारतवंशियों ने बिना मुँह खोले असंख्य पीड़ाओं को झेला है। उन्हीं के दुःख -दर्द की अनकही दास्तान का नाटक है 'गिरमिटिया भारतवंशी '। 
 
 'गिरमिटिया भारतवंशी' अनेकता में एकता का भी सटीक उदाहरण प्रस्तुत करता है, जहाँ लोग अपने मजहब, अपनी जाति अपनी मान्यताओं के प्रति पूर्वाग्रह छोड़कर  एकजुट होते नज़र आते हैं, रचनाकार के इस दृष्टिकोण को अगर  पाठक वर्ग उसी बिंदु से ग्रहण करे तो आज के समाज में फैली तमाम साम्प्रदायिक वैमनस्यताएँ स्वतः खंडित हो जाएँगी। इसकी एक बानगी उस समय दिखाई पड़ती है जब नाटक में गिरमिटिया भारतवंशियों में अपने धर्म पद्धतियों को पालन करने में कठिनाई का ज़िक्र आता है तब नाटक का पात्र शिशिर उपाध्याय अर्थात  पंडित जी अशरफ़  मियां को सम्बोधित करते हुए कहते हैं -

"व्यर्थ के चिंता करत बार भाई अशरफ मियाँ तू। जहवां चाहो उहवाँ राम-रहीम मिल जायेंगे।" 
इस संवाद में डॉ राजेश कुमार 'माँझी' ने कितनी सहजता से धार्मिक उन्माद की समस्या का समाधान प्रस्तुत कर दिया है और सभी किरदार इस बात पर सहमत होते हुए आपस में समंजस्यपूर्ण वातावरण स्थापित कर लेते हैं। ऐसा ही तो है हमारा देश, यही तो है वसुधैव कुटुम्बकम की भावना जहाँ पूरे विश्व को परिवार मानने की संकल्पना हमारे उपनिषदों में व्यक्त की गयी है। अगर देखा जाये तो हमारे गिरमिटिया भाई-बहन ही वसुधैव कुटुम्बकम के साक्षात् उदाहरण हैं जिन्होंने विश्व के सुदूर देशों को अपनी मातृभूमि जैसा आदर दिया, भले ही मातृभूमि के अन्य स्थानिय लोगों द्वारा उन्हें वैसा  आदर -सम्मान प्राप्त न हुआ हो। 

नाटक के पूर्वार्ध में जब विदेशी लोग सस्ते दामों में मजदूर तलाशने की चर्चा कर रहे होते हैं उस समय रचनाकार भारतीय जन मानस में व्याप्त जातिवाद की कुरीति को विदेशी पात्रों द्वारा स्पर्श करने में सफल होते हैं। भारत की इन प्रथाओं का कैसे विदेशियों ने दुरुपयोग किया वह भी साफ़ साफ़ इस नाटक के माध्यम से समझा जा सकता है, जब चार्ल्स कहता है -
"सी, इण्डिया में पंडिट्स रेस्पेक्टफुल मैन मानल जाला लोग। इंडियन्स इनका बात मानेला लोग। वी कैन रिक्रूट देम एज एजेंट"      

ऐसे में विदेशी पात्रों की चतुराई साफ़ समझ में आती है कि कैसे वे एक पंडित को अपना एजेंट बनाते हैं ताकि बाकी भारतीयों को झांसे में लिया जा सके क्योंकि उन्हें यह पता है कि पंडित की बातों को भारतीय लोग सम्मान देते हैं और उनकी बातों का प्रभाव अवश्य पड़ेगा। अशोक श्रीवास्तव ने कहा कि यदि सक्षेप में कहा जाए तो डॉ राजेश कुमार "माँझी" अपने इस नाटक के माध्यम से विविध पहलुओं को स्पर्श करने में पूर्णतः सफल दिखाई देते हैं, जहाँ पर भारतवंशियों के साथ हुए छल से आरम्भ होता यह नाटक आंसुओं से शहनाई के स्वर तक, शोक से उल्लास तक, दुःख से सुख तक और मातृभूमि के विछोह से शादी के मिलन तक की यात्रा करता है। इस नाटक की परिणीति ऐसे मोड़ पर करना रचनाकार की सकारात्मकता को दर्शाता है, यहाँ से पाठक वर्ग चाहे तो यह सन्देश ग्रहण कर सकता है कि संकट के समय में भी उल्लसित रहा जा सकता है। 

बहरहाल भारत से हज़ारों किलोमीटर दूर रहने वाले स्वजनों ने अपनी सभ्यता संस्कृति,  भाषा बोली और रीति रिवाजों को कितनी सुंदरता से सहेज रखा है यह सब नाटक में देख- पढ़कर प्रसन्नता होती है। लेकिन इस नाटक के माध्यम से हमें उन भाइयों की परेशानियाँ भी समझने का अवसर मिलता है जो एक त्रासदी की तरह उन पर टूटी होंगी। आस्थावादी विचार ये कह सकता है कि उन लोगों को भगवान राम ने बचाया होगा लेकिन देखा जाये तो उन लोगों ने भी इतनी दूर अपने मन में राम को बचाये रखा है। 

15 दृश्यों में विभक्त यह नाटक  एक ओर जहां अपनी  सरल-सुबोध भाषा के फलस्वरूप पाठकों से आत्मीय सम्बन्ध बनाने में सहज प्रतीत होता है वहीं दूसरी ओर पात्रों के संवाद भी सरलता से गहरी बात कह देने का चमत्कार उत्पन्न करते हैं। इस हृदयस्पर्शी सृजन के लिए रचनाकार निःसंदेह बधाई के पात्र हैं। इस कृति को मेरी  शुभकामनाएँ हैं कि "गिरमिटिया भारतवंशी" नाटकों की फ़ेहरिस्त में अपना विशेष स्थान बनाए।
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