@ व्यूज डोज /कमलेश पांडेय, वरिष्ठ पत्रकार


गाजियाबाद :- जनपद में प्रशासन है भी कि नहीं, जब सोचता हूं तो घबरा जाता हूँ। लोकतंत्र में सबके वोट भले ही समान हों, लेकिन प्रशासनिक कार्रवाई की विसंगतियां एक बुद्धिजीवी के तौर पर सीधे हृदय पर चोट करती हैं। सुनहरे विधि विधान, मीडिया महकमें में बयानबाजी और जमीनी हकीकत यदि किसी प्रशासनिक अधिकारी को समझ नहीं आती तो उसे एक पदाधिकारी होने पर शर्मिंदगी महसूस करनी चाहिए। माना कि आप स्थिति नियंत्रित नहीं कर सकते, लेकिन यदि हकीकत भरी रिपोर्ट भी आप अपने वरिष्ठ अधिकारी को नहीं भेज सकते तो फिर आपके होने, या नहीं होने से क्या मतलब रह जाता है।

यह बात आज मैं इसलिये उठा रहा हूं कि गाजियाबाद में राजनीति, प्रशासन, न्याय, पुलिस, मीडिया, समाजसेवी की पूरी श्रृंखला है, जिसका नैतिक कर्तव्य बनता है कि सामाजिक व्यवस्था नहीं टूटे। लेकिन महामारी के इस दौर में वह इस कदर छिन्न भिन्न हो गई है कि बद से बदतर स्थिति की चर्चा करने में भी शर्म महसूस हो रही है। माना कि अस्पताल में बेड नहीं है, ऑक्सिजन कम है, दवाई कम है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि बाजार में लूट मच जाए। यदि मच जाए और प्रशासनिक कार्रवाई सख्त नहीं दिखे तो फिर आप क्या समझेंगे।

इस देश में महंगी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को नियंत्रित करना किसकी जिम्मेदारी है। कोरोना काल में परिवहन व्यवस्था में अव्यवहारिक लूट मची हुई है, जिसे स्थानीय पुलिस और परिवहन अधिकारियों का संरक्षण यदि प्राप्त नहीं है तो फिर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है। सरकार गेहूं, चावल, दाल आदि के तो समर्थन मूल्य की बात करती है। बाजार के अधिकांश प्रोडक्ट एमआरपी पर बिकते हैं। सब पर अलग अलग छूट होती है। लेकिन शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में न छूट है, न गुणवत्ता नियंत्रण। कानून है भी तो व्यवहारिक अनुपालन नदारत। 

अभी हाल की बात करते हैं। आप नींबू, नारियल पानी, लहसून, अदरख समेत कई चीजों को जब खरीदने जाएंगे तो महसूस करेंगे कि कीमतों में 100 से 200 प्रतिशत, या उससे ज्यादा उछाल आया है। क्या यह स्थानीय प्रशासन को नहीं दिखता। मांग और आपूर्ति की आड़ में अधिक मुनाफा की प्रवृत्ति उपभोक्ता से दिन दहाड़े डकैती नहीं तो क्या है? उसपर से कई चीजों में मिलावट या नकली होना आम बात है। जिस ओर प्रशासन का ध्यान सिर्फ इसलिए नहीं जाता, क्योंकि हर भ्रष्टाचार में किसी न किसी का हिस्सा फिक्स है। ये बातें तो बानगी स्वरूप हैं, जबकि अराजक व्यवहार के ढेर सारे मुद्दे हैं, जिन्हें देखने की फुर्सत यदि डीएम, एसडीएम, विभागीय प्रमुख या जनप्रतिनिधियों को नहीं है तो फिर आम आदमी के लिए उनके होने या न होने का औचित्य क्या है?

लोकतंत्र में यदि विधायिका और कार्यपालिका में मिलीभगत हो जाये तो विपक्ष, मीडिया और न्यायपालिका से ही अंतिम उम्मीद बचती है, जिसे साधने की नैतिक जिम्मेदारी समाजपालिका यानी समाजसेवी व स्वयंसेवी संस्थाओं की होती है। लेकिन, एक नागरिक के तौर पर, एक पत्रकार के तौर पर जो देख-सुन रहा हूं, वह किसी जनतांत्रिक नंगा नाच सरीखा है। जहां सबकी सैलरी व ऊपरी आय मतलब कमीशन तो फिक्स है, लेकिन श्रमयोगी अपना गुजारा करने में असमर्थ हैं। 

सवाल है कि एक तो पगार या मेहनताना कम, ऊपर से अव्यवहारिक महंगाई की मार और तीसरा जीवन यापन के सभी क्षेत्रों में पनपा भ्रष्टाचार आमलोगों को जितना मार रहा है, कोरोना त्रासदी ने सिर्फ उसकी गति बढ़ा दी है। व्यवस्था के निजीकरण का मतलब यदि अधिकारी वर्ग और उद्यमी वर्ग द्वारा मचाई गई लूट खसोट है तो सिर्फ इतना समझ लो कि यह भी ज्यादा दिन नहीं चलेगा और भारत भूमि अपना जननायक ढूंढ लेगी।
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