सुनसान राह से जाते हुए मिली मुझे एक सुशील नारी अनजान
संक्षिप्त परिचय से बढ़ी हमारी जान.पहचान
मटमैली सी साड़ी में दिख रही थीं वो दुखी
उत्सुकतावश मैंने पूछ लिया, कौन हो तुम सखी
संस्कृत मेरी जननीए भारोपीय मेरा भाषा परिवार,
आर्यावर्त के आंगन में मिला मुझे प्यार और दुलार,
जब आया यौवन, तो चारों ओर थी मेरी जय.जयकार
किन्तु आज अस्तित्व के संघर्ष में मेरे समक्ष है प्रश्न हज़ार
सुन कर ये बात, मेरे मन में कौंधा एक सवाल
तो बढ़ कर पूछा मैंने, क्यों कर हुआए सखी तुम्हारा ये हाल
दीर्घ निःश्वास छोड़ कर वह बोली .
16 वी शताब्दी के आरंभ में हुआ भारत में अन्य भाषाओं का आगमन,
शिष्टाचारवश झुक कर किया मैंने इन्हें नमन,
किन्तु उस भूल पर मैं आज भी पछता रहीं हूं,
शान से जी रही हैं अन्य भाषाओं और मैं दर.दर की ठोकरें खा रही हूं।
घर का जोगी जोगड़ा, बाहर का जोगी सिद्ध
मेरी दुर्दशा के ज़िम्मेदार है कुछ भाषावादी गिद्ध।
इस आधुनिक युग में सब साथ मेरा छोड़ गए हैं
न जाने क्यों सब मुंह मुझसे मोड़ गए हैं
राष्ट्रभाषा बनने के कई वर्षों के बाद भी क्यों मेरा सम्मान नहीं है
एक आधुनिक भारतीय की नज़र में क्यों मुझे प्राप्त कोई स्थान नहीं है
अपने घर में ही बेगानी मैं,
खुद से ही हो गई अनजानी मैं
इतना सुनना था कि आहट से नींद मेरी टूटी,
सपनों की श्रृंखला छन्न से हाथों से छूटी।
सोचा तो ठीक ही कह रहीं थीं हिंदी
अपने हाथों से ही अपने भाल से हटायी हमने यह गौरव बिन्दी
दर्द ये केवल हिन्दी का नहीं हम सबका है,
दुःख ये केवल हिन्दी का नहीं हम सबका है।
फैसला कीजिए आप ही, क्या मैं ग़लत हूंघ्
ये न कहियेगा कि बाद में अभी ज़रा मैं व्यस्त हूं।
आओं मिलकर करें विचार, कर सकें तो करें उद्धारए
मिलकर पार करा दें इसकी समस्याओं का पारावार।
. आशिमा योगेश रान्टा
शिक्षिका गुरूकुल द स्कूल